क्यों चाहिए था नागरिकता संशोधन कानून?

इस लेख में हम पूर्वी पाकिस्तान व बांग्लादेश में रह रहे हिंदुओं पर विभाजन उपरांत हो रहे अत्याचारों पर प्रकाश डालते हुए यह स्थापित करेंगे कि

वहां के विस्थापित हिंदुओं को यहां शरण मिलना कितना आवश्यक है

Source – News18

By – अनंदिता सिंह

हम में से कोई भी इस बात से अनजान नहीं है कि हमारे पड़ोसी राज्यों में हिंदू, बौध, इसाई, सिख, और अन्य गैर मुसलमान जनसंख्या पर अत्याचार के किस्से अनगिनत ही नहीं, रूह दहलाने वाले भी हैं. अनेक मौकों पर यह माना गया है कि पाकिस्तान व बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार की शुरुआत भारत राष्ट्र के विभाजन के उपरांत हुई, इस परिपेक्ष में हम 1946 के ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का ज़िक्र करना अक्सर भूल जाते हैं जहां पाकिस्तान के संस्थापक माने जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना ने साफ लफ़्ज़ों में यह कह दिया था कि ‘हमें जंग नहीं चाहिए. यदि आपकी यह ख्वाइश है तो हम इसे बिना किसी झिझक के पूरा करेंगे. भारत या तो विभाजित होगा या नष्ट होगा.’ जिन्ना के यह शब्द इस बात को भली-भांती दर्शाते हैं कि भारत का विभाजन और पाकिस्तान राष्ट्र का गठन हिंदू द्वेष की भावना के आधार पर हुआ था.

डायरेक्ट एक्शन डे के भाषण में ऐसे शब्दों का परिणाम क्या था, इसका उल्लेख हमें श्रीरेंद्र प्रसाद की आत्म कथा में मिलता है. वह कहते हैं- ‘सुना जाता है कि 6-7 हज़ार आदमियों का खून हुआ है. सड़कों पर 2-3 दिनों तक लाशें पड़ी रहीं. छह हज़ार से ऊपर लाशें, जहां-तहां से हटाई गई हैं. यह भी खबर है कि बहुत लाशें ज़मीन के अंदर के नाले में डाल दी गई हैं जिनकी दुर्गंध से रास्ता चलना कठिन हो गया है.’ ‘इस तरह का कत्ले आम कलकत्ते में कभी न हुआ था. शायद नादिर शाह के दिल्ली वाले क़त्लेआम के अलावा भारत वर्ष के इतिहास में और कहीं ऐसा नहीं हुआ.’

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इस लेख की दृष्टि से हम पूर्वी पाकिस्तान व बांग्लादेश में रह रहे हिंदुओं पर विभाजन उपरांत हो रहे अत्याचारों पर प्रकाश डालते हुए यह स्थापित करेंगे कि वहां के विस्थापित हिंदुओं को यहां शरण मिलना कितना आवश्यक है. इतिहास के हताश पन्नों के माध्यम से यह जान लेना आवश्यक है कि यह लोग जिन्हें आज भारत की नागरिकता मिलने जा रही है, आखिर वे किन हालातों का शिकार हुए हैं.

मोहम्मद अली जिन्ना 13 जुलाई 1947 को नई दिल्ली में एक पत्रकार सम्मलेन को संबोधित करते हुए अपनी इस बात पर अडिग रहे कि अल्पसंख्यक पाकिस्तान में निश्चित रूप से सुरक्षित रहेंगे. पाकिस्तान के कई और नेताओं ने भी इस विषय पर जिन्ना के पदचिह्नों का पालन किया. लियाक़त अली खान ने 1950 में एक समझौते पर हस्ताक्षर किया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया था कि ‘पाकिस्तान की सरकार यह प्रतिज्ञा लेती है कि पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के बराबर नागरिकता देगी और उन्हें एक सुरक्षित माहौल प्रदान करेगी. उन्हें जीविका, प्रार्थना, संपत्ति एवं, भाषण की पूर्ण स्वतंत्रता मिलेगी.’

इसके अतिरिक्त विभाजन के समय पर मोहम्मद अली जिन्ना ने अनेकों ऐसे बयान व भाषण दिए, जिनमें अल्पसंख्यकों को यह आश्वासन दिया कि उनकी संस्कृति, धर्म, व संपत्ति को कोई भी क्षति नहीं पहुंचेगी. एक उदाहरण के लिए 11 अगस्त 1947 को जिन्ना ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा था ‘आप आज़ाद हैं, आप अपने मंदिरों में जाने क लिए आज़ाद हैं, आप अपने मस्जिदों में जाने क लिए आज़ाद हैं, आप अपने किसी भी उपासना गृह में जाने के लिए, इस पाकिस्तान में आजाद हैं

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1950 में गौर करने वाली बात यह रही कि जहां एक ओर लियाकत अली खान दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर रहे थे कि अल्पसंख्यक आवाम उनके देश में सुरक्षित है, वहीं दूसरी ओर भूपेंद्र कुमार दत्ता संविधान सभा में पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों की पीड़ा पर प्रकाश डाल रहे थे. 16 मार्च 1950 को उन्होंने संविधान सभा में कहा ‘आज हम इस सभा में एक आपदा के प्रत्यक्ष खड़े हैं जो कि हम अल्पसंख्यकों के अस्तित्व को खतरे में डाले हुए है. रिपोर्ट में दिए गए आकड़ों को हम कम या ज्यादा मान सकते हैं, मृतकों की संख्या को कम माना जा सकता है, संपत्ति की क्षति के आकड़े भिन्न हो सकते हैं, वह महिलाएं जिनके सम्मान का हनन हुआ है, उनकी संख्या से हम हमेशा अनभिज्ञ रहेंगे, लेकिन हम पूर्वी पाकिस्तान में 10 फरवरी से हो रहे अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते. यह घटनाएं मनोवैज्ञानिक रूप से दहला देने और बेचैन कर देने वाली हैं.’ भूपेंद्र कुमार दत्ता के साथ ही धीरेंद्र नाथ दत्ता ने भी संविधान सभा में यह चिंता व्यक्त की.

1950 में हिंदुओं पर हो रही क्रूरता का एक और वर्णन मिलता है जब 8 अक्टूबर 1950 को पाकिस्तान के प्रथम विधि व श्रम मंत्री जेएन मंडल ने प्रधानमंत्री लियाक़त अली खान को अपना इस्तीफा देते हुए पत्र लिखा. इस पत्र में मंडल ने इस्तीफे का कारण बताते हुए अनुच्छेद 11-17 में विस्तार से कई ऐसी घटनाओं का वर्णन किया है जो किसी भी व्यक्ति को निस्तब्ध कर दें. साथ ही, अनुच्छेद 23 में मंडल ने लिखा है, ‘मुझे यह आशा थी कि पूर्वी पाकिस्तान की सरकार और मुस्लिम लीग के सदस्य दिल्ली समझौते के प्रावधानों को लागू करेंगे, लेकिन समय के साथ मुझे यह एहसास हुआ है कि सरकार इस मामले में कोई ठोस कदम लेने के लिए उत्सुक नहीं है. कई विस्थापित हिंदू जो दिल्ली समझौते के बाद भारत से वापस आये, अपनी संपत्ति, और अपना घर वापस हासिल करने में नाकाम रहें.’ इसी पत्र के अनुच्छेद 9 में मंडल ने पूर्वी पाकिस्तान की सरकार के हिंदू विरोधी नीतियों का भी वर्णन किया. इसके साथ-साथ पूर्वी पाकिस्तान में हालत कुछ यूं बिगड़े कि जेएन मंडल को 1951 में पाकिस्तान से भाग कर भारत में शरण लेनी पड़ी.

1950 में हुए उत्पीडन के बाद के आकड़ो पर अगर गौर किया जाए, तो हिंदुओं कि संपत्ति में 12.7% की गिरावट आई, औए ढाका में रह रहे 90% हिंदू सीमा पार कर के भारत आ गए. छात्रों की संख्या में भी यही प्रवृत्ति रही, जहां 1947 के समय ढाका में हिंदू छात्रों की संक्या 2900 थी, वह 1950 में घट कर 140 रह गयी. छात्राओं का भी यही हाल रहा, 1947 में 2100 हिंदू छात्राओं के मुकाबले 1950 में सिर्फ 25 रह गयीं. हिंदू कॉलेज छात्रों की संख्या जहां 1947 में 65% थी, वह घट कर 1950 के दिसम्बर तक मात्र 7% रह गयी.

1950 में हुए हिंदू नरसंहार की साफ छवि इन्ही आकड़ों में झलकती है. यह पाकिस्तान की बर्बरता-पूर्ण मानसिकता को दर्शाता है और यह सत्य स्थापित करता है कि हिंदू अल्पसंख्यक न तब पाकिस्तान में सुरक्षित थे, ना आज हैं. घटना एक बार की नहीं है, 1949 में भी ऐसे कई मामले सामने आये थे, 1950 के बाद, 1951, 1952, 1958, 1960, 1964, 1970-71, 1990-92, 2013 और 2017 में भी यही हाल रहा.

हिंदू विरोधी दंगो और क्रूरता का अगला दौर आया 1964-65 में जब पाकिस्तान के केन्द्रीय संचार मंत्री साबुर खान ने सरे आम हिंदू विरोधी भावना को और हवा देते हुए बैठक करनी शुरू कि, 3 व 4 जनवरी को पाकिस्तान टाइम्स के कई रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि 3 जनवरी को पूर्वी पाकिस्तान में ‘ब्लैक डे’ के रूप में मनाया गया था और इसी अप्लक्ष्य में सबुर खान ने अनेकों द्वेषपूर्ण भाषण दिए. सूत्रों की मानें तो एक भाषण में सबुर खान ने यह भी कह दिया था कि वह पाकिस्तान के हर वृक्ष के हर पत्ते को ‘अल्लाह अल्लाह’ बोलने पर मजबूर कर देंगे और हिन्दुओ को भी इस नियम का पालन करना होगा अन्यथा उनके लिए पाकिस्तान में कोई जगह नहीं होगी.

हैरत की बात यह है कि 1974 में पाकिस्तान की सरकार को ‘ईश-निंदा’ पर कानून बनाने की आवश्यकता महसूस हुई लेकिन 1964 में ऐसे द्वेष पूर्ण भाषण, जो उनके ही संस्थापक के विचारों के विपरीत थे, इनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया गया.

1964 के दौर में ऐसी द्वेष पूर्ण बातें मानों पूर्वी पाकिस्तान की हवा में बह रही थी. इस द्वेष की भावना ने हिंसा का ऐसा रूप लिया कि लाखों हिंदू अपना घर, अपनी ज़मीन छोड़ कर भारत में शरण लेने को मजबूर हो गए. विस्थापित, प्रताड़ित अल्पसंख्यक हिंदुओ की संख्या इतनी भीषण थी की इसका ज़िक्र भारतीय राष्ट्रपति श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने एक पत्र के द्वारा 16 जनवरी 1964 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से किया. 1940 के दशक में हिंदुओ की जो संख्या 14% थी वह घटते हुए 1960 के दशक में 1.4% रह गयी. इन आकड़ों को देख कर ऐसा लगता है जैसे हिंदुओं से जीवन व सम्मान का अधिकार सिर्फ इसलिए छीन लिया हो, कि वह अल्पसंख्यक थे. जहा एक ओर भारत में मुस्लिमों की संख्या 9.8% से बढ़ कर 14.2% हो गयी है, वहीँ पाकिस्तान में रह रहे हिंदुओं पर अत्याचार इस कदर बढ़ा है कि उनका अस्तित्व मनो ख़तम सा हो गया है.

1964 के बाद आइये नज़र डालते हैं 1971 पर जब पूर्वी पाकिस्तान में पश्चिम पाकिस्तान के उर्दू को राष्ट्रीय भाषा बनाने के निर्णय के खिलाफ आन्दोलन चल रहे थे. 1971 एक ऐसा साल रहा जब त्रिपक्षीय सेनाओं ने एक मुल्क की आज़ादी के लिए जंग लड़ी लेकिन सबसे ज्यादा हानि पहुंची पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे हिंदू अल्पसंख्यक नागरिकों को. 1971 में दुनिया के मानचित्र पर बांग्लादेश एक स्वतंत्र देश बन कर उभरा और इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाई वहाँ के हिंदुओं ने. अमेरिकी सीनेटर एडवर्ड कैनेडी की रिपोर्ट- ‘क्राइसिस इन साउथ एशिया’ में इस बात की पुष्टि करने वाले प्रमाण मिलते हैं. सेनेटर कैनेडी ने लिखा है कि वे जब बांग्लादेश के गावों में गए, तो भौचक्के रह गए. कई जगह पर मानव शरीर पड़े सड़ रहे थे, बच्चे कंकालों के साथ खेल रहे थे, और कई घरों की बाहरी दीवार पर पीले रंग से अंग्रेजी का ‘H’ अक्षर लिखा हुआ था. यह साफ़ तौर पर एक निशान या पहचान थी जिसकी मदद से हिंदू घरों को केंद्रित करना आसान हो जाता था. यही बात सिडनी स्चंबेर्ग, (ढाका में न्यू यॉर्क टाइम्स के संवाददाता) ने भी अपनी रिपोर्ट ‘पाकिस्तानी स्लॉटर देट निक्सन इग्नोर्ड’ में लिखी है.

1971 का नरसंहार अत्यंत ही भद्र था, जिसमे अनुमानित तौर पर 3 मिलियन हिंदुओं का कत्ले आम हुआ. इसके परिणाम स्वरूम भारत में शरणार्थियों की मानो जैसे बाढ़ आ गयी, सीनेटर कैनेडी लिखते है कि कुल 10 मिलियन शरणार्थी 1971 के दौरान भारत आये, जिनमे से 8 मिलियन यानि कि 80% हिंदू थे.

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अगर हम सीनेटर कैनेडी की बात को नज़रंदाज़ भी करें तो, बंगलादेशी योजना मंत्रालय और ब्यूरो ऑफ़ स्टेटिस्टिक्स के आकड़ो को ही अपने तर्क का आधार मान सकते हैं. इन सरकारी आकड़ों के अनुसार, 1961 में बंगलादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में 18.5% आबादी हिंदुओं की थी और 1974 में जहा कुल आबादी में लगभग 21 मिलियन की बढ़ोतरी हुई, वहीँ हिंदू जनसंख्या 18.5% से घट कर 13.5% रह गयी जो अगले 7 सालों में और घट कर 12% हो गई . जहाँ बांग्लादेश की आबादी प्रत्येक जनगणना में बढती हुई नज़र आती है, (1941 में 42 मिलियन, 1961 में 50 मिलियन, 1974 में 71 मिलियन, और 1981 में 87 मिलियन) वही हिंदू जनसंख्या लगातार घटती ही गयी. बांग्लादेश में रह रहे हिंदू और मुस्लिम आबादी का शैक्षिक आर्थिक, और सामाजिक स्तर समान था, इसीलिए यदि मुस्लिम जनसंख्या एक दर से बढ़ रही थी तो हिंदू जनसंख्या में भी वही स्तर दिखना चाहिए, लेकिन हुआ ऐसा कि, जहाँ 1971 के दौर में हिंदू जनसंख्या 26 मिलियन होनी चाहिए, वह बस 13 मिलियन है, इस अकड़े में लापता 13 मिलियन में से जहाँ 8-9 मिलियन हिंदु विस्थापित हो कर भारत आ गए, वही बचे हुए 3 मिलियन हिंदू, जिनका कोई अभिलेख नहीं है, द्वेष बलि चढ़ गए.

1978 में बांग्लादेश सरकार के दस्तावेजों के अनुसार, बांग्लादेश में सिर्फ 6 मिलियन हिंदू रह गए हैं, यदि याद हो तो 1971 में हिंदुओं की संख्या 13 मिलियन थी, यहाँ फिर वही सवाल आता है- कहाँ गए बंगलादेशी हिंदू जिनकी संख्या में घटती प्रवृति कदापि न थी बल्कि 2.2% प्रति वर्ष का विकास दर था? इस सवाल का जवाब अब सरल हो गया है- वे हिंदू या तो मर दिए गए, या वे जान बचाने के लिए भारत आ गए. इस बरबर्ता का शिकार सिर्फ हिंदू न थे, बौध धर्म का पालन करने वाले लोग भी इस नैतिक सफाई का शिकार रहे. विभाजन के वक्त चिट्टागोंग हिल डिस्ट्रिक्ट में 98% बौध थे, और 1987 में यह संख्या मात्र 35% रह गयी. शायद सबुर खान ने सच ही कहा था कि जो अल्लाह को नहीं मानता, उसके लिए पाकिस्तान में कोई जगह नहीं थी.

इस स्तर पर जन-धन का नुकसान इस पूरे विश्व को अंधकार की ओर ले जा सकता है, यदि सोचा जाए तो मृतकों की यह संख्या कितनी भीषण होती यदि भारत ने बाहे खोले इन हिंदुओं को सहायता न दी होती, एक ओर विशाल बंगाल की खाड़ी, दूजी ओर हिंदुस्तान की सीमा और बीच में ऐसा नर्क जहाँ न बहु-बेटियां सुरक्षित थी और न जीने का अधिकार था. ऐसे में इन हताश हिंदुओं को सहारा था तो सिर्फ भारत का, जो आज उन्हें मिलने जा रहा है. आज उन्हें सम्मान के आभूषण मिलने जा रहे है जिससे लैस हो कर वह अपना जीवन एक हक़दार और जिम्मेदार नागरिक की तरह जी सकेंगे.

(अनंदिता सिंह नार्थ ईस्ट स्टडी सेंटर में सीनियर फेलो हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.)

 

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