क्यों चाहिए था नागरिकता संशोधन विधेयक?

क्यों चाहिए था नागरिकता संशोधन विधेयक?

 

हम में से कोई भी इस बात से अनजान नहीं है कि हमारे पड़ोसी राज्यों में हिंदू, बौध, इसाई, सिख, और अन्य गैर मुसलमान जनसंख्या पर अत्याचार के किस्से अनगिनत ही नहीं, रूह दहलाने वाले भी हैं| अनेक मौकों पर यह माना गया है कि पाकिस्तान व बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार की शुरुआत भारत राष्ट्र के विभाजन के उपरांत हुई, इस परिपेक्ष में हम १९४६ के ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का ज़िक्र करना अक्सर भूल जाते हैं जहाँ पाकिस्तान के संस्थापक माने जाने वाले मोहम्मद अली जिन्नाह ने साफ लफ़्ज़ों में यह कह दिया था कि “हमें जंग नहीं चाहिए| यदि आपकी यह ख्वाइश है तो हम इसे बिना किसी झिझक के पूरा करेंगे| भारत या तो विभाजित होगा, या नष्ट होगा|” जिन्नाह के यह शब्द इस बात को भली-भाँती दर्शाते हैं कि भारत का विभाजन, और पाकिस्तान राष्ट्र का गठन हिंदू द्वेष की भावना के आधार पर हुआ था|
डायरेक्ट एक्शन डे के भाषण में ऐसे शब्दों का परिणाम क्या था, इसका उल्लेख हमे श्री रेन्द्र प्रसाद की आत्म कथा में मिलता है| वह कहते हैं- “सुना जाता है कि ६-७ हज़ार आदमियों का खून हुआ है| सड़कों पर २-३ दिनों तक लाशें पड़ी रहीं| ३ हज़ार से ऊपर लाशें, जहाँ तहां से हटाई गयी हैं| यह भी खबर है कि बहुत लाशें ज़मीन के अन्दर के नाले में डाल दी गयी हैं जिनकी दुर्गन्ध से रास्ता चलना कठिन हो गया है|” “इस तरह का कत्ले आम कलकत्ते में कभी न हुआ था| शायद नादिर शाह के दिल्ली वाले क़त्ल आम के अलावा भारत वर्ष के इतिहास में और कहीं ऐसा नहीं हुआ|”
इस लेख की दृष्टि से, हम पूर्वी पाकिस्तान व बांग्लादेश में रह रहे हिंदुओं पर विभाजन उपरांत हो रहे अत्याचारों पर प्रकाश डालते हुए यह स्थापित करेंगे कि वहां के विस्थापित हिंदुओं को यहाँ शरण मिलना कितना आवश्यक है| इतिहास के हताश पन्नों के माध्यम से यह जान लेना आवश्यक है कि यह लोग जिन्हें आज भारत की नागरिकता मिलने जा रही है, आखिर वे किन हालातों का शिकार हुए हैं|
मोहम्मद अली जिन्नाह १३ जुलाई १९४७ को नई दिल्ली में एक पत्रकार सम्मलेन को संबोधित करते हुए अपनी इस बात पर अडिग रहे कि अल्पसंख्यक पाकिस्तान में निश्चित रूप से सुरक्षित रहेंगे| पाकिस्तान के कई और नेताओं ने भी इस विषय पर जिन्नाह के पदचिन्हों का पालन किया| लियाक़त अली खान ने १९५० में एक समझौते पर हस्ताक्षर किया जिसमे यह स्पष्ट किया गया था कि “ पाकिस्तान की सरकार यह प्रतिज्ञा करती है कि पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के बराबर नागरिकता देगी, और उन्हें एक सुरक्षित माहौल प्रदान करेगी| उन्हें जीविका, प्रार्थना, संपत्ति एवं, भाषण की पूर्ण स्वतंत्रता मिलेगी|”
इसके अतिरिक्त, विभाजन के समय पर मोहम्मद अली जिन्नाह ने अनेकों ऐसे बयान व भाषण दिए जिनमे अल्पसंख्यकों को यह आश्वासन दिया कि उनकी संस्कृति, धर्म, व संपत्ति को कोई भी क्षति नहीं पहुंचेगी| एक उदाहरण पर, ११ अगस्त १९४७ को जिन्नाह ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा था “आप आज़ाद हैं, आप अपने मंदिरों में जाने क लिए आज़ाद हैं, आप अपने मस्जिदों में जाने क लिए आज़ाद हैं, आप अपने कीसी भी उपासना गृह में जाने के लिए, इस पाकिस्तान में आजाद हैं|”
१९५० में गौर करने वाली बात यह रही कि जहाँ एक ओर लियाकत अली खान दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर रहे थे कि अल्पसंख्यक आवाम उनके देश में सुरक्षित है, वहीँ दूसरी ओर भूपेंद्र कुमार दत्ता संविधान सभा में पूर्व पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों कि पीड़ा पर प्रकाश डाल रहे थे| १६ मार्च १९५० को उन्होंने संविधान सभा में कहा “आज हम इस सभा में एक आपदा के प्रत्यक्ष खड़े हैं जो कि हम अल्पसंख्यकों के अस्तित्व को खतरे में डाले हुए है| रिपोर्ट में दिए गए आकड़ों को हम कम या ज्यादा मान सकते है, मृतकों की संख्या को कम माना जा सकता है, संपत्ति की क्षति के आकड़े भिन्न हो सकते हैं, वह महिलाये जिनके सम्मान का हनन हुआ है, उनकी संख्या से हम हमेशा अनिभिज्ञ रहेंगे, लेकिन हम पूर्वी पाकिस्तान में १० फरवरी से हो रहे अप्ल्संक्यकों के उत्पीड़न को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते| यह घटनायें मनोवैज्ञानिक रूप से दहला देने और बेचैन कर देने वाली हैं|” भूपेंद्र कुमार दत्ता के साथ ही धीरेन्द्र नाथ दत्ता ने भी संविधान सभा में यह चिंता व्यक्त की|
१९५० में हिंदुओं पर हो रही क्रूरता का एक और वर्णन मिलता है जब ८ अक्टूबर १९५० को पाकिस्तान के प्रथम विधि व श्रम मंत्री जे. एन. मंडल ने प्रधान मंत्री लियाक़त अली खान को अपना इस्तीफा देते हुए पत्र लिखा| इस पत्र में मंडल ने इस्तीफे का कारण बताते हुए अनुच्छेद ११-१७ में विस्तार से कई ऐसी घटनाओ का वर्णन किया है जो किसी भी व्यक्ति को निस्तब्ध कर दें| साथ ही, अनुच्छेद २३ में मंडल ने लिखा है, “मुझे यह आशा थी कि पूर्व बंगाल की सरकार और मुस्लिम लीग के सदस्य दिल्ली समझौते के प्रावधानों को लागू करेंगे| लेकिन समय के साथ मुझे यह एहसास हुआ है कि सरकार इस मामले में कोई ठोस कदम लेने के लिए उत्सुक नहीं है| कई विस्थापित हिंदू जो दिल्ली समझौते के बाद भारत से वापस आये, अपनी संपत्ति, और अपना घर वापस हासिल करने में नाकाम रहे|” इसी पत्र के अनुच्छेद ९ में मंडल ने पूर्वी पाकिस्तान की सरकार के हिंदू विरोधी नीतियों का भी वर्णन किया| इसके साथ साथ, पूर्वी पाकिस्तान में हालत कुछ यूँ बिगड़े कि जे एन मंडल को १९५१ में पाकिस्तान से भाग कर भारत में शरण लेनी पड़ी|
१९५० में हुए उत्पीडन के बाद के आकड़ो पर अगर गौर किया जाए, तो हिंदुओं कि संपत्ति में १२.७% की गिरावट आई, औए ढाका में रह रहे ९०% हिंदू सीमा पार कर के भारत आ गए| छात्रों की संख्या में भी यही प्रवृत्ति रही; जहाँ १९४७ के समय ढाका में हिंदू छात्रों की संक्या २,९०० थी, वह १९५० में घट कर १४० रह गयी| छात्राओं का भी यही हाल रहा, १९४७ में २,१०० हिंदू छात्राओं के मुकाबले १९५० में सिर्फ २५ रह गयीं| हिंदू कॉलेज छात्रों की संख्या जहाँ १९४७ में ६५% थी, वह घट कर १९५० के दिसम्बर तक मात्र ७% रह गयी|
१९५० में हुए हिंदू नरसंहार की साफ छवि इन्ही आकड़ों में झलकती है| यह पाकिस्तान की बर्बरता-पूर्ण मानसिकता को दर्शाता है और यह सत्य स्थापित करता है कि हिंदू अल्पसंख्यक न तब पाकिस्तान में सुरक्षित थे, ना आज हैं| घटना एक बार की नहीं है, १९४९ में भी ऐसे कई मामले सामने आये थे, १९५० के बाद, १९५१, १९५२, १९५८, १९६०, १९६५, १९७०-७१, १९९०-९२, २०१३ और २०१७ में भी यही हाल रहा|
हिंदू विरोधी दंगो और क्रूरता का अगला दौर आया १९६४-६५ में जब पाकिस्तान के केन्द्रीय संचार मंत्री साबुर खान ने सरे आम हिंदू विरोधी भावना को और हवा देते हुए बैठक करनी शुरू कि, ३ व ४ जनवरी को पाकिस्तान टाइम्स के कई रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि ३ जनवरी को पूर्वी पाकिस्तान में “ब्लैक डे” के रूप में मनाया गया था और इसी अप्लक्ष्य में सबुर खान ने अनेकों द्वेषपूर्ण भाषण दिए| सूत्रों की मानें तो एक भाषण में सबुर खान ने यह भी कह दिया था कि वह पाकिस्तान के हर वृक्ष के हर पत्ते को “अल्लाह अल्लाह” बोलने पर मजबूर कर देंगे और हिन्दुओ को भी इस नियम का पालन करना होगा अन्यथा उनके लिए पाकिस्तान में कोई जगह नहीं होगी|
हैरत की बात यह है कि १९७4 में पाकिस्तान की सरकार को “ईश-निंदा” पर कानून बनाने की आवश्यकता महसूस हुई लेकिन १९६४ में ऐसे द्वेष पूर्ण भाषण, जो उनके ही संस्थापक के विचारों के विपरीत थे, इनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया गया|
१९६४ के दौर में ऐसी द्वेष पूर्ण बातें मानों पूर्वी पाकिस्तान की हवा में बह रही थी| इस द्वेष की भावना ने हिंसा का ऐसा रूप लिया कि लाखों हिंदू अपना घर, अपनी ज़मीन छोड़ कर भारत में शरण लेने को मजबूर हो गए| विस्थापित, प्रताड़ित अल्पसंख्यक हिंदुओ की संख्या इतनी भीषण थी की इसका ज़िक्र भारतीय राष्ट्रपति श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने एक पत्र के द्वारा १६ जनवरी १९६४ को पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से किया| १९४० के दशक में हिंदुओ की जो संख्या १४% थी वह घटते हुए १९६० के दशक में १.४% रह गयी| इन आकड़ों को देख कर ऐसा लगता है जैसे हिंदुओं से जीवन व सम्मान का अधिकार सिर्फ इसलिए छीन लिया हो, कि वह अल्पसंख्यक थे| जहा एक ओर भारत में मुस्लिमों की संख्या ९.८% से बढ़ कर १४.२% हो गयी है, वहीँ पाकिस्तान में रह रहे हिंदुओं पर अत्याचार इस कदर बढ़ा है कि उनका अस्तित्व मनो ख़तम सा हो गया है|
१९६५ के बाद आइये नज़र डालते हैं १९७१ पर जब पूर्वी पाकिस्तान में पश्चिम पाकिस्तान के उर्दू को राष्ट्रीय भाषा बनाने के निर्णय के खिलाफ आन्दोलन चल रहे थे| १९७१ एक ऐसा साल रहा जब त्रिपक्षीय सेनाओं ने एक मुल्क की आज़ादी के लिए जंग लड़ी लेकिन सबसे ज्यादा हानि पहुँची पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे हिंदू अल्पसंख्यक नागरिकों को| १९७१ में दुनिया के मानचित्र पर बांग्लादेश एक स्वतंत्र देश बन कर उभरा और इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाई वहाँ के हिंदुओं ने| अमेरिकी सीनेटर एडवर्ड कैनेडी की रिपोर्ट- “क्राइसिस इन साउथ एशिया” में इस बात की पुष्टि करने वाले प्रमाण मिलते हैं| सेनेटर कैनेडी ने लिखा है कि वे जब बांग्लादेश के गावों में गए, तो भौचक्के रह गए| कई जगह पर मानव शरीर पड़े सड़ रहे थे, बच्चे कंकालों के साथ खेल रहे थे, और कई घरों की बाहरी दीवार पर पीले रंग से अंग्रेजी का ‘H’ अक्षर लिखा हुआ था| यह साफ़ तौर पर एक निशान या पहचान थी जिसकी मदद से हिंदू घरों को केंद्रित करना आसान हो जाता था| यही बात सिडनी स्चंबेर्ग, (ढाका में न्यू यॉर्क टाइम्स के संवाददाता) ने भी अपनी रिपोर्ट “पाकिस्तानी स्लॉटर देट निक्सन इग्नोर्ड” में लिखी है|
१९७१ का नरसंहार अत्यंत ही भद्र था, जिसमे अनुमानित तौर पर ३ मिलियन हिंदुओं का कत्ले आम हुआ| इसके परिणाम स्वरूम भारत में शरणार्थियों की मानो जैसे बाढ़ आ गयी, सीनेटर कैनेडी लिखते है कि कुल १० मिलियन शरणार्थी १९७१ के दौरान भारत आये, जिनमे से ८ मिलियन यानि कि ८०% हिंदू थे|
अगर हम सीनेटर कैनेडी की बात को नज़रंदाज़ भी करें तो, बंगलादेशी योजना मंत्रालय और ब्यूरो ऑफ़ स्टेटिस्टिक्स के आकड़ो को ही अपने तर्क का आधार मान सकते हैं| इन सरकारी आकड़ों के अनुसार, १९६१ में बंगलादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में १८.५% आबादी हिंदुओं की थी और १९७४ में जहा कुल आबादी में लगभग २१ मिलियन की बढ़ोतरी हुई, वहीँ हिंदू जनसंख्या १८.५% से घट कर १३.५% रह गयी जो अगले ७ सालों में और घट कर १२% हो गई | जहाँ बांग्लादेश की आबादी प्रत्येक जनगणना में बढती हुई नज़र आती है, (१९४१ में ४२ मिलियन, १९६१ में ५० मिलियन, १९७४ में ७१ मिलियन, और १९८१ में ८७ मिलियन) वही हिंदू जनसंख्या लगातार घटती ही गयी| बांग्लादेश में रह रहे हिंदू और मुस्लिम आबादी का शैक्षिक आर्थिक, और सामाजिक स्तर समान था, इसीलिए यदि मुस्लिम जनसंख्या एक दर से बढ़ रही थी तो हिंदू जनसंख्या में भी वही स्तर दिखना चाहिए, लेकिन हुआ ऐसा कि, जहाँ १९७१ के दौर में हिंदू जनसंख्या २६ मिलियन होनी चाहिए, वह बस १३ मिलियन है, इस अकड़े में लापता १३ मिलियन में से जहाँ ८-९ मिलियन हिंदु विस्थापित हो कर भारत आ गए, वही बचे हुए ३ मिलियन हिंदू, जिनका कोई अभिलेख नहीं है, द्वेष बलि चढ़ गए|
१९७८ में बांग्लादेश सरकार के दस्तावेजों के अनुसार, बांग्लादेश में सिर्फ ६ मिलियन हिंदू रह गए हैं, यदि याद हो तो १९७१ में हिंदुओं की संख्या १३ मिलियन थी, यहाँ फिर वही सवाल आता है- कहाँ गए बंगलादेशी हिंदू जिनकी संख्या में घटती प्रवृति कदापि न थी बल्कि २.२% प्रति वर्ष का विकास दर था? इस सवाल का जवाब अब सरल हो गया है- वे हिंदू या तो मर दिए गए, या वे जान बचाने के लिए भारत आ गए| इस बरबर्ता का शिकार सिर्फ हिंदू न थे, बौध धर्म का पालन करने वाले लोग भी इस नैतिक सफाई का शिकार रहे| विभाजन के वक्त चिट्टागोंग हिल डिस्ट्रिक्ट में ९८% बौध थे, और १९७८ में यह संख्या मात्र ३५% रह गयी| शायद सबुर खान ने सच ही कहा था कि जो अल्लाह को नहीं मानता, उसके लिए पाकिस्तान में कोई जगह नहीं थी|
इस स्तर पर जन-धन का नुकसान इस पूरे विश्व को अंधकार की ओर ले जा सकता है, यदि सोचा जाए तो मृतकों की यह संख्या कितनी भीषण होती यदि भारत ने बाहे खोले इन हिंदुओं को सहायता न दी होती, एक ओर विशाल बंगाल की खाड़ी, दूजी ओर हिंदुस्तान की सीमा और बीच में ऐसा नर्क जहाँ न बहु-बेटियां सुरक्षित थी और न जीने का अधिकार था| ऐसे में इन हताश हिंदुओं को सहारा था तो सिर्फ भारत का, जो आज उन्हें मिलने जा रहा है| आज उन्हें सम्मान के आभूषण मिलने जा रहे है जिससे लैस हो कर वह अपना जीवन एक हक़दार और जिम्मेदार नागरिक की तरह जी सकेंगे|

 

By Anandita Singh, North East Centre

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